शिष्य


तुम कह रहे हो, कि हम शिष्य हैं, पर शिष्य तो साधक के आगे की स्टेज हैं! शिष्य को समझने के लिए उपनिषद को भी समझना होगा! उपनिषद का तात्पर्य हैं “उप”, “निषद”, पास में आना और नजदीक बैठना! यहाँ पास में आना और नजदीक बैठने का तात्पर्य, गुरु के समीप जाना और गुरु के समीप बैठने की क्रिया से हैं! जो गुरु के समीप बैठता हैं, जो गुरु से कुछ सीखता हैं, जो गुरु का चिंतन करता हैं, उनके ज्ञान मंथन से कुछ मोती प्राप्त करता hain और अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करता हैं, अपने मन की जटिल ग्रंथियों को खोलने का प्रयास करता हैं, ऐसी क्रिया करने वाले को उपनिषद कहते हैं!

उपनिषद और शिष्य में कोई अंतर नहीं दोनों का शब्दार्थ एक हैं! शिष्य का अर्थ भी हैं नजदीक होना और इतना नजदीक होना कि गुरु के हृदय से एकाकार हो सकें…. उसे ही शिष्य कहते हैं!

शिष्य का तात्पर्य किसी देह से नहीं हैं, शिष्य का तात्पर्य खड़े होकर हाथ जोड़ने से नहीं हैं, शिष्य का तात्पर्य कोई दीक्षा लेने से भी नहीं हैं! यह तो एक भाव हैं कि हम दीक्षा लेकर अपने आपको पूर्ण रूप से गुरु चरणों में विसर्जित करके गुरु से एकाकार हो जायें, वहां से तो हमारी शिष्यता प्रारंभ होती हैं!

शिष्य का वास्तविक तात्पर्य हैं गुरु के अनुरूप बनना, और आज्ञा पालन करना! ….. और एकमात्र आज्ञा पालन करना ही शिष्य का परम कर्त्तव्य हैं! यदि हमने तर्क-वितर्क किया तो हम शिष्यता की भावभूमि से परे हट जाते हैं! शिष्य शब्द बना ही हैं आज्ञा पालन से, निरंतर उनकी सेवा करने से! सेवा और आज्ञा पालन ये दो साधन हैं, जिनके माध्यम से शिष्य आगे की ओर अग्रसर होता हुआ पूर्णता प्राप्त कर सकता हैं! जो सेवा नहीं कर सकता, वह समर्पण भी नहीं कर सकता और जहाँ समर्पण नहीं हैं, वहां शिष्यता भी नहीं हैं!

गुरु ने क्या काम सौंपा हैं, ये तो गुरु ही जाने, परन्तु ऐसा काम, चाहे कठिन भी हो, यदि सौंपा हैं तो जरुर इसके पीछे उनका कोई हेतु होगा, जरुर कोई नियमन होगा, तभी ऐसा काम सौंपा हैं – जो ऐसा चिंतन करते हुए बिना आलस्य के, समय पर कार्य को सम्पन्न कर गुरु चरणों में समर्पित कर दे, वही शिष्य हैं!

शिष्य का तात्पर्य हैं “त्याग” – सब कुछ त्याग करने की जिसमें क्षमता होती हैं, वही शिष्य कहला सकता हैं! शिष्य बनना इतना आसान नहीं हैं! यह तो अपने आप को फ़ना कर देने की क्रिया हैं! गुरु और शिष्य के बीच स्वार्थ का कोई सम्बन्ध नहीं होता! यदि व्यक्ति हुलसता हुआ, प्रसन्नता के अतिरेक में गुरु के चरणों में पहुँच जाता हैं, और उनके चरणों में झुक कर मंदिर, मस्जिद, काशी और काबा, हरिद्वार और मथुरा के दर्शन कर लेता हैं, सारे देवी और देवताओं के दर्शन कर लेता हैं, तब वह सही अर्थों में शिष्य हैं!

यह जरुरी नहीं कि गुरु आपको बुलाये ही, परन्तु जिस प्रकार एक बेल पेड़ के चारों ओर लिपटकर एकाकार हो जाती हैं, उसी प्रकार शिष्य भी गुरु के चरणों से लिपट जायें, ऐसी स्थिति बनें तब वह शिष्य हैं!

और जब अहंकार को समाप्त कर सेवा और समर्पण में शिष्य पारंगतता प्राप्त कर लेता हैं, जब वह पूर्ण रूप से सेवामय बन जाता हैं, समर्पंमय बन जाता हैं, तो फिर उसके लिए मंत्र जप जरुरी नहीं रह जाता, क्योंकि सेवा ही मंत्र जप हैं, समर्पण ही अपने आप में पूर्ण साधना हो जाती हैं! और ऐसा होना जीवन का सौभाग्य होता हैं, जिससे देवता भी ईर्ष्या करते हैं!

-सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी.

मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान.

जनवरी 2000, पेज नं : 45.

पावन पर्व


गुरु पूर्णिमा वह पावन पर्व हैं, जब प्रत्येक शिष्य अपने प्राण प्रिय पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में उपस्थित होकर, कृतार्थता व्यक्त करते हुए श्रृद्धा-सुमन अर्पित करता हैं. यही हैं गुरु और शिष्य का पावन सम्बन्ध, जहाँ अन्य सभी सम्बन्ध न्यून और नगण्य हो जाते हैं, क्योंकि शिष्य गुरु का मिलन वैसा ही हैं, जैसे धरती और आकाश का मिलन हो, बूंद और समुद्र का मिलन हो, और इस मिलन के बीच समस्त ब्रह्माण्ड रचा-पचा हैं. यह सम्बन्ध आज का नहीं अपितु युगों-युगों से हैं, और शाश्वत हैं.

यह सम्बन्ध देह का नहीं, अपितु प्राणों का हैं, आत्मा का परमात्मा से मिलन हैं, और कोई शिष्य गुरु से एकाकार होता हैं, तो सारा ब्रह्माण्ड शिष्य के पैरों तले होता हैं, वह शिष्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की झलक गुरु में देख कर विस्मय विमुग्ध हो उठता हैं, क्योंकि यह तो स्व का आत्मा से, जीव का ब्रह्म से और चैतन्य का अचैतन्य से मिलन हैं.... और यह मिलन कोई सामान्य मिलन नहीं हैं, अपितु जन्म-जन्मांतर का मिलन हैं!

-सदगुरुदेव निखिलेश्वर

चूक न जाना


और मैं फिर तुम्हें आगाह कर रहा हूँ की जिस प्रकार हर जीवन में तुम अपने जीवन को चूक रहे हों, उस प्रकार से इस जीवन में भी अपने आपको चूक मत जाना, अपने आपको भुलावे में मत डाल देना, कि आज नहीं तो कल कर लेंगे, इस बार नहीं तो अगली बार गुरु पूर्णिमा पर पहुँच जायेंगे, अभी नहीं तो फिर कभी बाद में गुरुदेव से मिल लेंगे.

पर मैं कहता हूँ कि यह तुम्हारा स्वप्न हैं, यह नींद में सुप्त बनाये रखने की प्रक्रिया हैं, यह फिर तुम्हें भुलावा देने की क्रिया हैं और इस बार यदि तुम इस छलावे में आ गए, तो निश्चित हो फिर एक बार अपने जीवन को चूक जाओगे, फिर एक बार तुम्हारा जीवन सामान्य-सा जीवन बन कर रह जायेगा. फिर एक बार तुम्हारा जीवन एक घटिया गृहस्थ का, एक घटिया व्यापारी का या एक मामूली नौकरी पेशे का जीवन बन कर रह जायेगा. फिर समय को पकड़ने और इसको जी लेने के प्रयोग कम हैं, इसकी अपेक्षा चूक जाने के अवसर ज्यादा हैं, नींद में गाफिल हो जाने के मौके ज्यादा हैं, यह तो तुम्हारे हाथ में हैं कि इस जीवन को घटिया जीवन के रूप में व्यतीत कर देना हैं या जीवन को पूर्णता के साथ प्राप्त कर लेना हैं और इसके लिए गुरु पूर्णिमा का शानदार संयोग हैं!

कई-कई जन्मों के बाद ऐसा अवसर आया हैं कि तुम्हारे जीवन में एक चेतना पुरुष उपस्थित हैं. कई हजार वर्षों के बाद ऐसा अवसर पृथ्वी पर उतरा हैं कि स्वयं बुद्धत्व तुम्हें आवाज दे रहा हैं : अपने अंदर आत्मसात करने के लिए, कई युगों के बाद फिर अवसर आया हैं कि तुम अपने जीवन को सही अर्थों में ऐतिहासिक बना सको.

-सदगुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी.